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प्राकृतिक कृषि पर्यावरण के लिए हितकारी : आचार्य देवव्रत

Byjanadmin

Oct 2, 2018


जनवक्ता ब्यूरो नई दिल्ली
राज्यपाल आचार्य देवव्रत ने कहा कि शून्य लागत प्राकृतिक कृषि पर्यावरण मित्र है और किसान समुदाय को लाभ देने वाली है। उन्होंने राष्ट्र हित में हर वर्ग से इस अभियान में जुड़ने का आह्वान किया।
राज्यपाल आज नई दिल्ली के एन.डी.एम.सी. कन्वेंशन सेन्टर में कल्याण शिक्षा समिति द्वारा संचालित ‘संकल्प’ के चौथे तीन दिवसीय सम्मेलन के अंतर्गत पर्यावरण की दृष्टि से कृषि आर्थिकी विषय पर अपने विचार व्यक्त कर रहे थे।
आचार्य देवव्रत ने कहा कि राज्यपाल के रूप में पिछले तीन साल में उन्होंने हिमाचल में अनेक सामाजिक अभियान चलाए हैं, जिनमें शून्य लागत प्राकृतिक कृषि भी शामिल है। उन्होंने कहा कि अभी तक देश में रासायनिक और जैविक कृषि की ही बात होती है। रासायनिक कृषि को हम पिछले लगभग 40 वर्षों से कर रहे हैं। आरम्भ में उत्पादकता तो बढ़ी, लेकिन आज उसके दुष्परिणाम भी हमारे सामने हैं। आज उत्पादन कम हो रहा है और लागत बढ़ रही है। पर्यावरण को नुकसान हो रहा है व जलस्तर नीचे जा रहा है। इसके अलावा रसायनिक उत्पाद खाने से रोग बढ़ रहे हैं। इसलिए रासायनिक कृषि राष्ट्र व किसान हित में नहीं है।

उन्होंने कहा कि दूसरी तरफ हम जैविक कृषि की बात करते हैं, जिसका उन्होंने स्वयं गुरूकुल के कृषि फार्म में पाँच साल तक अनुसरण किया। इस कृषि को करने से भी पहले तीन साल उत्पादन घटता है और लागत भी कम नहीं होती है। जैविक कृषि देश के खाद्यान्न की पूर्ति नहीं कर सकती। उन्होंने हिसार व लुधियाना कृषि विश्वविद्यालय की रिपोर्ट का जिक्र करते हुए कहा कि गेहूं और चावल जमीन से सबसे अधिक तत्व लेते हैं। एक एकड़ भूमि में एक फसल को 60 किलो नाइट्रोजन की जरूरत होती है, जबकि 1 टन गोबर की खाद में 2 किलो नाइट्रोजन मिलता है। इस तरह 1 एकड़ में एक फसल के लिए 30 क्विंटल खाद डालने पर 60 किलो नाइट्रोजन की पूर्ति संभव है। इसके लिए 25 से 30 पशुधन चाहिए, जो एक किसान के लिए संभव नहीं है। इसके अतिरिक्त, जैविक कृषि में खरपतवार बढ़ती है और ये ग्लोबल वार्मिंग को भी बढ़ाता है। किसान जिस केंचुआ खाद का उपयोग करते हैं, वह विदेश से आयात की जाती है। यह केंचुआ खाद हैवी मेटल छोड़ती है, जो सेहत के लिए हानिकारक है। इसके अतिरिक्त, जैविक उत्पाद इतने महेंगे हैं कि जिसे खरीद कर किसानों की आये दोगुनी करना सम्भव नही है।
पदमश्री सुभाष पालेकर ने तीसरा विकल्प दिया है, जिसे शून्य लागत प्राकृतिक कृषि का नाम दिया गया है। ऐसी कृषि जिसको करने से किसान को एक भी पैसा खर्च न करना पड़े। इस कृषि का आधार देसी नस्ल की गाय है। इस के अंतर्गत एक गाय से 30 एकड़ की कृषि की जा सकती है। उन्होंने कहा कि भारतीय नस्ल की गाय के 1 ग्राम गोबर में 300 से 500 करोड़ जीवाणु पाए जाते हैं, जो जमीन की उर्वरा शक्ति को बढ़ाने में सहायक है। प्राकृतिक कृषि में गाय के गोबर व गोमूत्र से जीवामृत व घन जीवामृत तैयार किया जाता है, जो खाद का काम करता है।
राज्यपाल ने कहा कि कृषि वैज्ञानिकों की ताजा रिपोर्ट चौंकाने वाली है। प्राकृतिक कृषि में 1 ग्राम मिट्टी में 161 करोड़ जीवाणु पाए गए हैं, जबकि रासायनिक कृषि में केवल 30 लाख जीवाणु पाए गए। इस पद्धति में 10 से 12 लाख केंचुए एक एकड़ में काम करते हैं और इस खाद में 16 प्रकार के तत्व होते हैं, जो जमीन की उर्वरा शक्ति बढ़ाते हैं। इस कृषि में 70 से 80 प्रतिशत पानी की बचत होती है। उन्होंने प्राकृतिक कृषि के अभियान में सहयोग का आग्रह किया।
इस अवसर पर, कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे पूर्व प्रशासनिक अधिकारी अजय मित्तल ने राज्यपाल का स्वागत करते हुए शून्य लागत प्राकृतिक कृषि को वर्तमान समय की आवश्यकता बताया। उन्होंने कहा कि हिमाचल प्रदेश में जिस गति से प्राकृतिक कृषि की दिशा में कार्य हो रहा है, निश्चित तौर पर हिमाचल जल्द ही प्राकृतिक कृषि राज्य बन जायेगा। इससे शीघ्र ही पड़ोसी राज्यों को भी प्राकृतिक उत्पाद मिल सकेंगे।
प्रशासनिक अधिकारी प्रसन्ना कुमार, प्रमुख उद्योगपति अमृत सिंघल, गौरी शंकर गुप्त, संकल्प के संस्थापक सदस्य संतोष तनेजा तथा अन्य गणमान्य व्यक्ति इस अवसर पर उपस्थित थे।

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